सूचना क्रांति की बलि चढ़ गए हमारे त्यौहार
सदियों से चली आ
रही भारतीय परंपरा अब खत्म होने की कगार पर है। मैं बात उस रवायत की कर रहा हूं, जो
हमारी परंपरा की एक रीढ़ है। जिसने हमें अच्छे बुरे का फर्क समझाया है।
एक जमाने में गाँव-गाँव
में दशहरे के एक हफ्ते पहले से रामलीला का आयोजन था और आखिरी दिन पाप पर पुण्य की जीत
यानि दशहरा को रावण वध।
रावण वध की परंपरा
तो आज भी चल रही है भले ही इसके स्वरूप में काफी बदलाव आ चुका है। लेकिन रामलीला मंडलियाँ
आज धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। अब तो गाँवों में भी सूचना-प्रसार क्रांति ने इस
कदर लोगों को जकड़ रखा है कि डिश टीवी, टाटा स्काई या फिर डीटीएच के मानिंद मनोरंजन
और जीवन का पर्याय समझाने वाली हमारी इस विरासत को बचाने कोई नजर नहीं आता।
मैं बात ज्यादा दिन
की नहीं कर रहा हूँ दरअसल मैं भी गाँव में ही पला बढ़ा और किसी जमाने में मैंने भी
रामलीला में छोटा-मोटा पाठ कर लिया करता था। कुछ आठ से दस साल ही हुए हैं जब दशहरे
के दौरान मेरे व आसपास के गाँवों से रात के सन्नाटे को चीरती हुई लंकेश की आवाज सुनाई
नहीं दे रही है।
मैं यह नहीं कहना
चाहता कि मैं सही हूं इस हालात के लिए मैं भी खुद को जिम्मेदार मानता हूँ क्योंकि मेरे
जैसे लोग गाँव छोड़ शहर की चकाचौंध में इस तरह रम गए हैं कि गाँव खाली होने लगे हैं
एेसे में चंद मुट्ठी भर लोग इस परंपरा को जीवित रखे भी तो कैसें...?
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