Tuesday, June 13, 2017

तिरे-मिरे दरमियां

यादों की गठरी तो है
वो अहसासों में जिंदा है
अहसानों में जिंदा है।
लगता तो कोई तरन्नुम है
महज अल्फाजों में जिंदा है।
वक्त की रेत कहीं ठहरी तो है,
जिंदगी के मानिंद कहीं गहरी तो है,
मुलाकात भले अधूरी ही सही
मगर रहगुजर से गुजरी तो है।
सुबह बीत रही है जैसे शाम हो,
शुक्र है ये घड़ी कुछ कहती तो है।
हकीकत से रू-ब-रू कौन होता है यहां,
तिरे-मिरे दरमियां यादों की गठरी तो है।
उदास न होना किसी में मेरा अक्स देखकर
कहानी अधूरी,,, एक पहेली तो है।
वो वक्त का ठहरना, बिन कहे सब कह जाना
बुझा हुआ वो ख्वाब, अब तेरी सहेली तो है।

ओमप्रकाश चन्द्राकर ‘शैल’

No comments:

Post a Comment