Tuesday, June 13, 2017

तिरे-मिरे दरमियां

यादों की गठरी तो है
वो अहसासों में जिंदा है
अहसानों में जिंदा है।
लगता तो कोई तरन्नुम है
महज अल्फाजों में जिंदा है।
वक्त की रेत कहीं ठहरी तो है,
जिंदगी के मानिंद कहीं गहरी तो है,
मुलाकात भले अधूरी ही सही
मगर रहगुजर से गुजरी तो है।
सुबह बीत रही है जैसे शाम हो,
शुक्र है ये घड़ी कुछ कहती तो है।
हकीकत से रू-ब-रू कौन होता है यहां,
तिरे-मिरे दरमियां यादों की गठरी तो है।
उदास न होना किसी में मेरा अक्स देखकर
कहानी अधूरी,,, एक पहेली तो है।
वो वक्त का ठहरना, बिन कहे सब कह जाना
बुझा हुआ वो ख्वाब, अब तेरी सहेली तो है।

ओमप्रकाश चन्द्राकर ‘शैल’

Monday, January 18, 2016

हर निवाले पे...

तेरे प्यार का दस्तखत अब कहां
ये जिन्दगी जब मुझे
वक्त बेवक्त सताती है,
शबनमी शीतल तेरे
आंचल की याद आती है।
जब भी मैं थककर
घर की दहलीज चढ़ा करता हूं,
ऐ मां,,, तेरे हाथों के
उस छुवन की याद आती है।
हर निवाले पे
तेरे प्यार का दस्तखत अब कहां,
अब तो जिन्दगी
मानों रफ्तार में ठहर जाती है।
‌वजूद उस अहसान का
न मिटा है न मिटेगा कभी,
ऐ मां,, कुछ देर ठहर
जिम्मेदारियां ही मुझे भरमाती है।
चांदनी रात की वो लोरियां
वो शाह नवाबों की कहानियां,
स्याह रात की थपकियां,
आज भी जेहन में मुस्कुराती है।
मां तेरी हूकूमत का ये नवाब
आज नाम का नहीं मोहताज,
तेरी ही जुबां से मिला शब्द
मेरी लिखावट में भी
अब "शैल" रंग आती है।
ओमप्रकाश चन्द्राकर "शैल"

Friday, January 1, 2016

ताकि इस बदले हुए युग में

बनी रहे प्रेम की सदभावना।
मेरे ह्रदय में अवतरित हुई ,
ये प्रेम की संवेदना,
अलाप करती हुई,
अंतर्मन में एक कामना...
स्वच्छंद विचरते खगों सी
प्रेम रूपी नभ में,
उड़ने की,
उनके नयनों के सागर की,
अथाह गहराई में तरना
उत्फुल्ल पुष्पों की,
नवरंग को निहारना
और इस सनातन प्रेम की,
अभिलाषाओं में बंधना
ताकि मेरे बाद भी,
इस बदले हुए युग में,
बनी रहे प्रेम की सदभावना।
ओमप्रकाश चन्द्राकर "शैल"

Thursday, October 6, 2011

खत्म होती परंपरा

सूचना क्रांति की बलि चढ़ गए हमारे त्यौहार

सदियों से चली आ रही भारतीय परंपरा अब खत्म होने की कगार पर है। मैं बात उस रवायत की कर रहा हूं, जो हमारी परंपरा की एक रीढ़ है। जिसने हमें अच्छे बुरे का फर्क समझाया है। 
एक जमाने में गाँव-गाँव में दशहरे के एक हफ्ते पहले से रामलीला का आयोजन था और आखिरी दिन पाप पर पुण्य की जीत यानि दशहरा को रावण वध।
रावण वध की परंपरा तो आज भी चल रही है भले ही इसके स्वरूप में काफी बदलाव आ चुका है। लेकिन रामलीला मंडलियाँ आज धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। अब तो गाँवों में भी सूचना-प्रसार क्रांति ने इस कदर लोगों को जकड़ रखा है कि डिश टीवी, टाटा स्काई या फिर डीटीएच के मानिंद मनोरंजन और जीवन का पर्याय समझाने वाली हमारी इस विरासत को बचाने कोई नजर नहीं आता। 
मैं बात ज्यादा दिन की नहीं कर रहा हूँ दरअसल मैं भी गाँव में ही पला बढ़ा और किसी जमाने में मैंने भी रामलीला में छोटा-मोटा पाठ कर लिया करता था। कुछ आठ से दस साल ही हुए हैं जब दशहरे के दौरान मेरे व आसपास के गाँवों से रात के सन्नाटे को चीरती हुई लंकेश की आवाज सुनाई नहीं दे रही है। 

मैं यह नहीं कहना चाहता कि मैं सही हूं इस हालात के लिए मैं भी खुद को जिम्मेदार मानता हूँ क्योंकि मेरे जैसे लोग गाँव छोड़ शहर की चकाचौंध में इस तरह रम गए हैं कि गाँव खाली होने लगे हैं एेसे में चंद मुट्ठी भर लोग इस परंपरा को जीवित रखे भी तो कैसें...?

Saturday, May 8, 2010

सख्त राहों में भी आसान सफ़र लगता है , ये मेरी माँ की दुवाओं का असर लगता है....


एक मुद्दत से मेरी माँ सोई नहीं..
मैने जो एक बार कहा था,,, माँ मुझे डर लगता है!!!
माँ मुझे डर लगता है......
आज पूरा विश्व माँ की ममता का नमन कर रहा है , जन्मदात्री के उपकारों को याद कर रहा है, लेकिन दिल के किसी कोने में एक सवाल रह रह कर गूंज रहा है?
दरअसल बात उस वक़्त की है जब मैं कवरेज के दौरान वृद्धाश्रम आया जाया करता था . जहाँ ममता को आधुनिकता की बलिवेदी पर लटकता देख दिल खून के आंसू रोता रहता .. वहां उन माओं की स्तिथि देखकर हैरान था जिन्होंने कभी अपने कलेजे के टुकड़े को सहेजकर पाला , उसे इस लायक बनाया की इस दुनिया में कंधे से कन्धा मिलकर चल सके. पर आज ये क्या होने लगा माँ को कंधे का सहारा चाहिए तब उसे ठुकरा दिया गया . क्या हम आधुनिकता के दौड़ में इतने अंधे हो गए है ......? क्या एक माँ की सिसकियाँ हमें सुनाई नहीं दे रही है .......?
अब बात मैं उस ज़माने की कर रहा हूँ जब मैं पैदा भी नहीं हुआ था , जब फॅमिली प्लानिंग की बात इतनी प्रचलित नहीं थी . तब किसी घर में एक से दो साल के अंतर में बच्चे हुआ करते थे ऐसे में स्तनपान के लिए किसी और महिला का सहारा लिया जाता था, अमूमन ऐसी महिलाएं आसपास या फिर घर में काम करने वाली होती थी जिसके पहले से ही बच्चा होता था, लेकिन आज भले ही खुद की माँ को बच्चे भूल गए हों माँ की ममता बिना स्वार्थ के , बिना भेदभाव के दोनों बच्चे को अपने छाती से लगा लेती थी। इस बीच एक ऐसा रिश्ता कायम हो जाया करता था की बच्चे ताउम्र  दो माँ का रिश्ता निभाते रहते। एक वो जिसने जन्म दिया और एक वो जिसने अपनी छाती से लगाया और इस रिश्ते की डोर इतनी प्रगाढ़ थी कि दो परिवार पीढ़ी डर पीढ़ी एस रिश्ते को निभाते चले आ रहे है। ये सब बाते आज मेरे इसलिए आ रही है क्योंकि ऐसे परिवारों को अपने आसपास देखा है ..महसूस किया उनकी भावनाओं को। 
खैर ! ये तो रही बीते ज़माने कि बात ..आज तो खुद कि माँ पराई हो गई है . बदलते दौर के साथ हम क्यों भूल जाते है कि माँ आज भी बच्चे को जन्म देती है , आज भी दूध पिलाती है और आज भी अपने कलेजे के टुकड़े को जीवन के उस मुकाम तक ले जाती है जहाँ से वो अपने पैर पर चल सके ....बदला है तो सिर्फ माँ के प्रति बच्चों का नजरिया जिसका परिणाम है आज तिल तिल कर जीती माएं ...जिन्हें वृद्धाश्रम का सहारा है .. पहली बार जब मैं आश्रम कि चौखट पर गया तो मुझे लगा कि वाकई ये लोग खुश हैं .. लेकिन..... जब बात निकली तो ....दिल है .....और दिल रोता भी है .....यहाँ जाने पर मुझे महसूस हुआ कि वाकई दुनिया कितनी बदल चुकी है ..दूध का क़र्ज़ , ममता का क़र्ज़ ये महज शब्द ही रह गए है ..वो शब्द जिसके मर्म को कोई समझना ही नहीं चाहता ..
हम भूल गए ..... कल जब हम छोटे थे और कोई हमारी बात नहीं समझ पाता था, तो सिर्फ एक ही थी जो हमारे टूटे फूटे लब्ज़ समझ जाया करती थी ..हमारी ख़ुशी भी ..और हमारी तकलीफें ....वो शख्स कोई नहीं माँ ही
है .... मगर आज जब माँ के उपकारों से इस काबिल हो गए हैं कि अपने कंधों पर कईयों का बोझ उठा पायें तो हम अपने माँ से कहने लगे .......
आप नहीं जानते ,
आप नहीं समझ पायेंगे ,
आपकी बाते मुझे समझ में नहीं आती ..
यही बातें अगर हमने बचपन में सुनी होती तो बोलना तो दूर हम चल भी नहीं पाते .
बहरहाल कहने के लिए तो बहुत है लेकिन आज के दिन जितना जरूरी समझा कह दिया ....माँ की ममता का बखान मैं नहीं कर सकता ..हाँ ...एक टीस मन में है जिसे जाहिर कर दिया ...
क्योंकि------------
माँ जब भी रोती थी जब बेटा खाना नहीं खाता था

और माँ आज भी रोती है जब बेटा खाना नहीं देता

Thursday, April 29, 2010

बरगद......

.... के पेड़ पे, झूलता बचपन
कोई लौटा दे...
मेरा खोया बचपन,
लौटा दे......
वो मेरा लड़कपन,
ले लो मुझसे ये सारा जीवन,
पर कोई दे दे...
वो बीता बचपन। 
वो गलियों में घूमता बचपन,
बरगद के पेड़ पे झूलता बचपन।
कोयल की कूक से कूकता बचपन,
वो दुःख दर्द से बेगाना बचपन।
माँ के आँचल की वह छाँव,
खुशियों से भरा वह गाँव।
वो कीचड़ से सने हुए पाँव,
कंचियों में लगता दांव।
पनघट पे बजता पबिरंजन,
दीवाली की शाम वो रौशन।
गाँव का अल्हड़ मस्ताना,
अब बचपन हो गया अंजना।
काश लौट कर आ जाता,
वो बचपन दुख से बेगाना।
ओमप्रकाश चन्द्राकर "शैल"

Tuesday, April 27, 2010

संघर्ष…

योग्यता का अयोग्यता से
जब दुखों के काले मेघ,
छाये हृदय में......
घोर निराशा छा जाती है.
और उस निराश हृदय में,
कल्पना के अलावा
कुछ नहीं होता.....
क्या उसे ज्ञात है ...?
इस बदले हुए दौर में
लक्ष्य यूँ ही नहीं मिलता..
परिश्रम तो करते हैं
पर फल नहीं मिलता
यहाँ संघर्ष है......
योग्यता का अयोग्यता से
जो योग्य है,
वह गलियों में है फिरता
और जो अयोग्य है
वह पूंजी देकर
अपनी किस्मत
ही खरीद लेता...
दफ्तरों में लम्बी कतार
योग्य उम्मीदवार..........?
वहीँ बगल में बैठा है
एक और उम्मीदवार
जिनके हाथों में
सिफारिश का तार....
फिर किसकी हस्ती है
जो दे उसे पछाड़.
ऐसे है इस युग के
बड़े कर्णधार.....
जो सिफारिशों की महत्ता को
स्वीकारते है
और योग्यता को
अपने पैरों तले रौंद कर
चल पड़ते है
एक और........
अयोग्यता की तलाश में।

ओमप्रकाश चन्द्राकर "शैल"